



देहरादून, 17 अप्रैल — एक ओर जहां उत्तराखंड सरकार अवैध मज़ारें गिराकर सरकारी ज़मीन को अतिक्रमण से मुक्त कराने का दावा कर रही है, वहीं दूसरी ओर राजधानी देहरादून में सरकारी ज़मीन को रसूख़दारों के कब्ज़े में दिलाने के लिए सिस्टम ही मोहरा बनता नज़र आ रहा है।
मामला उत्तराखंड तकनीकी विश्वविद्यालय के पीछे स्थित राज्य स्तरीय अनुसंधान एवं वित्त प्रशिक्षण केंद्र से जुड़ा है, जहां के पीछे कुछ प्रभावशाली लोगों की निजी भूमि है। इस भूमि तक फिलहाल कोई वैध मार्ग नहीं है, लेकिन यदि संस्थान की सीमा में बनी सरकारी सड़क का उपयोग उन्हें मिल जाए, तो उनकी ज़मीन की कीमत कई गुना बढ़ सकती है।
जानकारी के अनुसार, इस रास्ते को कब्ज़ाने की नीयत से दो बार सरकारी दीवार को तोड़ा गया, लेकिन पुलिस ने किसी भी बार एफआईआर दर्ज नहीं की। अब जब केंद्र के अधिकारियों ने लोहे की ग्रिल से बाउंड्री निर्माण शुरू किया, तो स्थानीय पुलिस ने प्राइवेट लोगों के समर्थन में मोर्चा संभालते हुए काम रुकवाने की कोशिश की।
यहाँ तक कि एक पुलिस दरोगा का शासन के अपर सचिव से बातचीत का तरीका भी सवालों के घेरे में है, जिसमें वह ऐसे क्रोधित दिखे जैसे जमीन उनकी निजी संपत्ति हो। ये व्यवहार न केवल पुलिस प्रशिक्षण की खामी दर्शाता है, बल्कि सरकारी मर्यादाओं की भी अनदेखी करता है।
सूत्रों के मुताबिक, मामला जब शासन तक पहुँचा तो फिलहाल सरकारी ज़मीन कब्ज़े से बचा ली गई है। लेकिन बड़ा सवाल अब यह है — “इस ज़मीन की कीमत बढ़वाने में किसे है सबसे ज़्यादा फ़ायदा, और सिस्टम की चुप्पी क्या किसी गहरी सांठगांठ का संकेत है?”
अब ज़रूरत है निष्पक्ष और समयबद्ध जांच की, ताकि सच सामने आ सके और सरकारी संपत्ति को भू-माफियाओं के हवाले होने से रोका जा सके।
